वैद्य राम अचल।
1930 के आस-पास एक दिन अचानक से आयुर्वेदाचार्य ( जो की कोई व्यक्ति गुरू शिष्य परंपरा में 20-25 वर्ष की कड़ी मेहनत के बाद बनता था ) को ग़ैर क़ानूनी घोषित कर दिया गया क्योंकि उनके पास अंग्रेजों के विश्वविद्यालय से मान्यता प्राप्त काग़ज़ी डिग्री नहीं थी ।
महामना मदन मोहन मालवीय जी ने स्वंयम अपने हाथों से लिखकर कुछ वैद्यों को प्रमाणित डिग्री दी जो उनके विशेषाधिकार में थी ।
पर आज तक इस विषय में की कैसे आयुर्वेद को भारत से तहस नहस किया गया विदेशी फॉर्मा के लाभ के लिए इसपर आज तक कोई चर्चा ही नहीं हुयी ।
आयुर्वेद चिकित्सक असाध्य और कठिन रोगों में सदियों से रसायन शास्त्र के अनुसार रस और भस्मों का इस्तेमाल करते रहे हैं. लेकिन प्रभावशाली एलोपैथी लाबी के दबाव में अब सरकार इनके उपयोग की औपचारिक अनुमति नहीं दे रही है . आयुर्वेद को केवल कुछ जड़ी बूटियों और काढ़े तक सीमित कर दिया है, जिससे महामारी के इलाज में भी बाधा आ रही है।
आयुर्वेद के इतिहास में प्राचीन भारत की एक घटना का अक्सर उल्लेख किया जाता है जिसके अनुसार एक बार मगध में महामारी व दुर्भिक्ष का प्रकोप हुआ था। वर्षा न होने के कारण सारी फसलों सहित जड़ी-बूटियाँ भी सूख गयी थी ।भोजन के अभाव में जनता कुपोषण और बीमारियों से त्राहिमाम कर रही थी ।तत्कालीन मगध सम्राट ने नालन्दा विश्वविद्यालय में इस संकट से निपटने के लिए आचार्यो का महासम्मेलन आयोजित किया । सभी आचार्यो ने अपने-अपने विचार प्रस्तुत किये,अंत में नागार्जुन नामक आचार्य ने अपना विचार प्रस्तुत करते हुए कहा कि मैं सिंगरफ और हिंगुल से पारा निकाल सकता हूँ,पारे से स्वर्ण बनाने की विधि भी जानता हूँ,यदि प्रयोग करने की राजाज्ञा व धन मिले तो स्वर्ण के व्यापार राजकोष भर सकता है, जिससे प्रजा की सहायता कर कुपोषण मुक्त कर रोगों से रक्षा की जा सकती है। पारे,स्वर्ण आदि धातुओं के भस्म से सम्पूर्ण रोगो की चिकित्सा संभव है।
सम्राट अविश्वास के साथ आश्चर्य चकित सुनता रहा,पर कोई अन्य विकल्प न होने के कारण आचार्य नागार्जुन को इस सूत्र को यथार्थ मे बदलने के लिए राजकोष से धन उपलब्ध कराने की राजाज्ञा जारी किया ।
आचार्य नागार्जुन ने अपने व्यक्त विचार को प्रयोग में बदलकर इतना स्वर्ण का निर्माण किया कि राज्य का राजकोष समृद्ध हो गया तथा भस्म से जनता की चिकित्सा कर स्वस्थ व समृद्ध राज्य की पुनर्स्थापना हुई। राजा प्रसन्न होकर आचार्य नागार्जुन को नालन्दा विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया ।इसके पश्चात आचार्य नागार्जुन की ख्याति चीन-जापान सहित पूरे एशिया में फैल गयी।
रसायन शास्त्र आयुर्वेद का प्रमुख प्रभावकारी अंग
इस कथानक से यह स्पष्ट होता है कि रसायन शास्त्र आयुर्वेद का प्रमुख प्रभावकारी अंग रहा है।भारतीय चिकित्सा विज्ञान की तीन धारायें हैं।जिन्हें चरक,सुश्रुत,नागार्जुन सम्प्रदाय कहा जाता है।चरक सम्प्रदाय में जीवन शैली, रोगों से बचाव,चिकित्सा में वनौषधियों के प्रयोग की प्रमुखता है,सुश्रुत सम्प्रदाय में शल्य अर्थात सर्जरी प्रधान है,इसी तरह नागार्जुन सम्प्रदाय जटिल रोगों,महामारियों,आपात कालीन चिकित्सा एवं विषज,धातु,खनिज प्रधान औषधियों की प्रमुखता है।
परन्तु यहाँ खेद जनक तथ्य है कि केवल चरक सम्प्रदाय को ही आयुर्वेद मान लिया जाता है। जहाँ ऐसी अवधारणा है कि भारत का हर आदमी कुछ न कुछ आयुर्वेद जनता है,आयुर्वेद जड़ी-बूटी आधारित चिकित्सा पद्धति है,इसकी दवायें नुकसान नहीं करती है इसलिए इसके सेवन के लिए डाक्टर या वैद्य के परामर्श की आवश्यकता नहीं है,परन्तु वास्तव में यह आयुर्वेद न होकर, लोकचिकित्सा या परम्परागत चिकित्सा है, जिसका प्रचलन दुनियाँ की प्रत्येक सभ्यता रहा है।
आयुर्वेद का वैज्ञानिक पक्ष इससे अलग है,इसलिए वास्तविक परिणाम परक चिकित्सा के लिए आयुर्वेद चिकित्सक(वैद्य) की आवश्यकता होती है,क्योकिं आयुर्वेद के केवल काढ़ा,चूर्ण,जड़-बूटी की चिकित्सा पद्धति नही है।इसमें जटिल वैज्ञानिक प्रक्रियाओं से निर्मित विषों,धातुओं,खनिजों,जीव-जन्तुओं के माँस,अस्थियाँ भी औषधि के रूप में प्रयोग की जाती है,जो किसी जटिल,आपातकालीन रोगों में परिणाम देती है।यही नागार्जुन सम्प्रदाय है जो आयुर्वेद को आधुनिक औषधि विज्ञान के समकक्ष पूर्ण आयुर्विज्ञान बनाता है।इसे शैव सम्प्रदाय भी कहा जाता है क्योंकि शैव, तांत्रिक साहित्य में रस-भस्म की निर्माण प्रक्रियाँ,औषधि योगों का वर्णन मिलता है।जिसके अनुसार रसशास्त्र की उत्पत्ति ही शिव से मानी जाती है।वीरभद्र भैरव इसके मुख्य आचार्य माने जाते है।
आयुर्वेद के रस भस्मों का प्रभाव एलोपैथी की कृत्रिम रासायनिक औषधियों की ही तरह होता है।इन औषधियों के गलत प्रयोग से दुष्प्रभाव भी होता है,इसलिए इनके प्रयोग में चिकित्सकीय परामर्श की आवश्यकता होती है।रस-भस्मों दुष्प्रभाव(साइज इफेक्ट या रिएक्शन) एलोपैथिक के कृत्रिम रासायनिक औषधियों की अपेक्षा नगण्य सा होता है।
रस भस्मों के निर्माण में अनेक वनस्पतियों का प्रयोग किया जाता है,जिसके निर्माण की प्रक्रिया जटिल व वैज्ञानिक होती है . मारण,जारण,संस्कार,भस्मीकरण आदि प्रक्रियाओं उसके विषाक्त प्रभाव खत्म हो जाते है। ये रस-भस्म युक्त औषधियाँ हजारों साल से बनायी व प्रयोग मे लायी जाती रही है।जिनके प्रयोग से इमरजेंसी, ज्वर,वमन, अतिसार, रक्तस्राव, घाव, श्वासकष्ट, हृदय रोग, मूत्ररोग,घाव आदि रोगों में तात्कालिक लाभ मिलता है।आज भी आयुर्वेद के सफल चिकित्सक रस-भस्मों के प्रयोग से ही चिकित्सा कर चमत्कारिक लाभ देते है। सरकार द्वारा लाइसेंस प्राप्त कर सैकड़ों कम्पनियाँ इन दवाओं की भारी मात्रा में उत्पादन करती है।आयुर्वेद के स्नातक पाठ्यक्रम का यह महत्वपूर्ण अंग है,इसके लिए एक विभाग होता है,इसमें पोस्टग्रेजुएट (एम.डी.) व पी.एच.डी. की उपाधियाँ दी जाती है,इस विषय का विपुल साहित्य भंडार भी है। आयुर्वेद संस्थानों के प्रयोगशालायें भी है। रसमंगल, रसायनमहानिधि, रसेन्द्रसंहिता, रसतंत्र,रसार्णवतंत्र रसतंत्रसार,रसतरंगिणी आदि अनेक प्रमाणिक ग्रंथ है,इसके बावजूद आश्चर्यजनक रूप में आयुर्वेद संस्थानों से लेकर आयुर्वेद चिकित्सकों तक में रस भस्मों के प्रयोग प्रति भय व उपेक्षा का भाव समा गया है। यहाँ आयुर्वेद के जीवन शैली सुधार एवं हर्बल पक्ष पर आधिक जोर दिया जाता है,सरकार भी आयुर्वेद के नाम पर हर्बल औषधियों को प्रचारित कर रही है। प्रबुद्ध वर्ग में भी रस-भस्मो के प्रति एक प्रचारित भय देखने को मिलता है।
एलोपैथी फार्मा रिसर्च का दुष्प्रचार
इसका कारण एलोपैथी फार्मा रिसर्च का दुष्प्रचार है। जिसके गले में यह नहीं उतरता है भला कैसे लोहा,ताँबा,सोन,चाँदी,आर्सेनिक आदि खिलाया जा सकता है? उस वैज्ञानिकी को यह भ्रम है कि धातुओं के कण गुर्दा,लीवर को नुकसान पहुँचाते हैं,इस विषय पर बकायदे शोध पत्र प्रकाशित गये है,अखबारों,पत्र, पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित हुए है।2002 ई.में पारा के चिकित्सकीय प्रयोग को आन्तर्राष्ट्रीय स्त्तर पर प्रतिबंधित करने घोषणा भी की गयी है।इसके प्रभाव में ही आयुर्वेद की रासायनिक,धात्विक औधियों का हानिकारक मान लिया गया है।आश्चर्य यह होता है आम लोग या एलोपैथी चिकित्सको के साथ आयुर्वेद के चिकित्सक और फैकल्टी मेंम्बर भी इस षडयंत्रकारी शोध पर विश्वास कर लेते है। ऐलोपैथिक विधा के आधुनिक नामी संस्थानों में गुर्दा व लीवर के रोग के लिए आयुर्वेदिक औषधियों के सेवन को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। भले ही वह रोगी कभी आयुर्वेदिक दवा का सेवन न किया होसहाँलाकि पेनकीलर दवाओं का अतिरिक्त सेवन गुर्दा,लीवर के खराब होने का सबसे बड़ा कारण है,जिसे लोग बिना चिकित्सकीय परामर्श से खाते रहते हैं। खतरनाक साइड इफेक्ट वाली एलोपैथी दवाओं का लोगो के साथ आयुर्वेद चिकित्सक भी धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं।जिनका तात्कालिक दुष्प्रभाव सामने होता है।
इस विषय पर कुछ वैज्ञानिकों ,चिकित्सकों से बात करने आधुनिक पैरामीटर पर परीक्षण और आंकड़ो की माँग की जाती है,एक हास्यापद माँग लगती है क्योंकि जिन दवाओं का हजारों साल से मनुष्य पर प्रयोग किया जाता रहा है,आज भी हो रहा है ,उसका पशुओं,चूहे,खरगोश पर प्रयोग कर आँकड़े की बात की जाती है।उपरोक्त पंक्तियों में कहा जा चुका है,आयुर्वेद औषधि निर्माताओं द्वारा भारी मात्रा ये दवाये बनायी और बेची जाती है,देश के हर शहर में प्रतिमाह लाखों-करोड़ो का कारोबार है।यदि रस-भस्म युक्त औषधियाँ इतनी हानिकारक होती तो अब तक पूरे देश का गुर्दा,लीवर खराब हो चुका होता,पर ऐसा नहीं है।
एलोपैथिक औषधियों के विकल्प होने खड़ा होने का भय
असल मामला एलोपैथिक औषधियों के विकल्प होने खड़ा होने का भय है। यह पूरी तरह एकाधिकार का मामला है। ये रिसर्चकर्ता यदि ईमानदार होते तो रस-भस्मों के निर्माण प्रक्रिया का अध्ययन परीक्षण व प्रयोग करते,या आयुर्वेद विशेषज्ञो को भी इस अध्ययन परीक्षण में शामिल करते ।ये शोध वैसे ही जैसे अरबी का विद्वान को अंग्रजी भाषा में शोध कर रहा हो। इसलिए एलोपैथिक फार्मा रिसर्च के विद्वान केवल अपनी अवधारणा के अनुसार फैसला सुना देते है।जबकि यहाँ एक सामान्य तथ्य है एलोपैथी-आयुर्वेदिक या किसी भी पद्धित की दवाओं की बिना निदान व अनुचित मात्रा प्रयोग हानिकारक होता है।जैसे एलोपैथिक दवाओं का गलत प्रयोग हानिकारक होता है वैसे आयुर्वेद दवाओं का गलत प्रयोग हानिकारक होता है।
यहाँ एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि एलौपैथीक दवाओं का प्रभाव घट रहा है।एलोपैथिक रसायनिक दवायें इस कदर निष्प्रभावी हो रही है अब हर महीने एंटीबायोटिक के नये साल्ट की जरूरत पड़ रही है,एक साथ दो तीन एंटी बायोटिक या पेनकीलर साल्ट प्रयोग किये जा रहे है जिनका तात्कालिक लाभ तो हो रहा है परन्तु लम्बे समय के लिए शरीर के हानिकारक सिद्ध हो रही है,इम्यूनिटी का नुकसान पहुँचा रही है।
एक शोध के अनासार भारत में हर साल लाखों एंटीबायोटिक दवायें बिना मंजूरी के बिकती हैं, जिससे दुनियाँ भर में सुपरबग के खिलाफ लड़ी जाने वाली जंग पर खतरा मंडरा रहा है। ब्रिटेन के एक शोध में यह चेतावनी देते हुए बताया गया कि भारत में बिकने वाली 64 फीसदी एंटीबायोटिक दवाये अवैध हैं।जो विकसित देशों में प्रतिबंधित है। ब्रिटिश जर्नल ऑफ क्लीनिकल फॉर्मेसी में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां बिना मंजूरी के दर्जनों ऐसी दवाएं बेच रही हैं,जबकि पूरी दुनिया पर रोगाणुरोधी प्रतिरोध का खतरा है। शोधकर्ताओं के मुताबिक भारत उन देशों में शामिल है, जहां एंटीबायोटिक दवाओं की खपत और रोगाणुरोधी प्रतिरोध की दर सबसे ज्यादा है। इससे भारत के दवा नियामक तंत्र की असफलता सामने आती है।जिनकी मंजूरी भारत सरकार ने भी नहीं दी है। इस शोध के लिए भारत में 2007 से 2012 के बीच बिकने वाली एंटीबायोटिक दवा और उनकी मंजूरी के स्तर का अध्ययन किया गया,जिसमे यह पाया गया कि भारत में 118 तरह की एफडीसी (फिक्स्ड डोज कांबिनेशन) दवा बिकती है, जिसमें से 64 फीसदी को भारतीय नियामक ने ही मंजूरी नहीं दी है। अमेरिका में इस तरह की चार दवा ही बिकती हैं। हालांकि भारत में बिकने वाली 93 प्रतिशत एसडीएफ (सिंगल डोज फार्मुलेशन) वैध हैं। भारत में कुल 86 एसडीएफ दवायें बिकती है।
इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय तथ्य है कि आयुर्वेदिक रस(पारद युक्त औषधियाँ),भस्मों के प्रभाव में हजारों साल से कोई कमीं नहीं आयी है,जितना प्रभावी पहले थी उतनी ही प्रभावी आज भी है,लाखों वैद्य इनके प्रयोग से सफल चिकित्सा दे रहे हैं। आज कोरोना महामारी के दौर में पूरी दुनियाँ में इसके लिए कोई निश्चित परिणापरक दवा नहीं है फिर एलोपैथी क्लोरोक्वीन,एजीथ्रोमाइसिन,रेमडेसिवीर जैसी व्यापक प्रतिक्रिया वाली दवाओं का घड़ल्ले से विश्वास के साथ प्रयोग किया जा रहा है।ऐसी स्थिति में आयुर्वेद के रस-भस्मों के प्रयोग से परहेज क्यों किया जा रहा है।दुर्योग यह है कि आयुर्वेद आदि प्राचीन चिकित्सा विधियों के विकास के लिए भारत सरकार ने 2016 में एक मंत्रालय गठित किया ।
आयुर्वेद का मतलब केवल काढ़ा नहीं
इस महामारी काल में यह मंत्रालय आयुर्वेद को केवल काढ़े पर लाकर खड़ा कर दिया है,जबकि पिछले साल आई.एम.एस आयुर्वेद बी.एच.यू सहित अनेक आयुर्वेद विशेषज्ञों द्वारा रस-भस्म युक्त औषधियों का प्रोटाकाल स्वीकृति के लिए मंत्रालय को भेजे गये थे,जिनकी सहमित आज तक नहीं मिल सकी। आज के हालात में जब कोरोना महामारी अनियंत्रित हो चुकी है तब सरकारी प्रोटोकाल की अवहेलना करते हुए, नीजी आयुर्वेद चिकित्सक लक्षणों के आधार पर रस भस्मों का प्रयोग कर, अनेक पीड़ितों का जीवन बचा रहे है,यदि सरकार देश के सारे आयुर्वेद संस्थानों से इसे प्रश्रय देना शुरु करे तो निश्चित ही आपदा के नियंत्रण में महत्वपूर्ण सफलता मिलेगी ।इसके लिए सरकारी संस्थानों में विशेष परामर्श केन्द्र खोलना चाहिए ।इस प्रयोग को डेंगू,चिकनगुनियाँ में देखा जा चुका है,जबतक इन रोगों पर सरकारी नियंत्रण था तब तक ये भयावह बने हुए थे,परन्तु नियंत्रण हटते ही आयुर्वेद चिकित्सा से प्रभावी परिणाम मिलने लगा,जिससे प्रभावित होकर एलोपैथिक फार्मा कम्पनियों ने पपीते के पत्तों से बना मँहगा टैबलेट बाजार में उतार दिया ।
वर्तमान की आवश्यकता है जैसै एलोपैथी में कोरोना रोगियों की लाक्षणिक चिकित्सा प्रबंधन किया जा रहा है उसी तरह आयुर्वेद,सिद्धा,यूनानी आदि को चिकित्सा प्रबंधन का अवसर दिया जाना चाहिए,क्योकिं आयुर्वेद ऐसे रोगों की लाक्षणिक चिकित्सा का परिणाम मिलता रहा है।आयुर्वेद के अनुसार कोरोना श्वासतंत्र का रोग है,जिसमें प्रतिश्याय(फ्लू),कास(खाँसी),श्वास(साँस लेने में कष्ट),फुफ्फुस ज्वर,प्रदाह (न्यूमोनियाँ)की स्थितियाँ हो रही है,जिसकी सफल व त्वरित चिकित्सा के लिए आयुर्वेद में रस-भस्म युक्त अनेक दवायें जैसे लक्ष्मी विलासरस,त्रिभुवन कीर्तिरस,चन्द्रामृत रस,कफकर्तरी रस,श्वास कुठाररस, संजीवनीबटी, टंकण भस्म, श्वासकास चिंतामणि रस, कस्तूरी भैरवरस आदि का प्रयोग किया जाता रहा है।
सरकारी स्तर पर यदि आयुर्वेद संस्थानों को आयुर्वेदीय रस भस्मों का प्रयोग व कोरोना महामारी नियंत्रण में दायित्व दिया जाय तो निश्चित भयावह स्थिति नियंत्रण में हो सकती है।
आयुर्वेद के कुछ चिकित्सकों व फैकल्टी द्वारा अभियान चलाये जाने पर आयुषमंत्रालय ने सीसीआरएएस द्वारा रिसर्च की गयी एक मलेरिया ज्वर में प्रयुक्त होने वाली हर्बल औषधि आयुष-64 को कोरोना चिकित्सा के लिए उपयोगी बताया है,इससे भी स्पष्ट होता है कि मंत्रालय भी रस-भस्मों के औषधि विज्ञान को स्वीकृति देने को तैयार नहीं है,क्योकिं इस वर्ग में रस-भस्मों के अनेक प्रभावकारी योगों को आयुर्वेदिक प्रोटोकाल में शामिल नहीं किया गया है।
लेखक : वैद्य राम अचल
✍🏻साभार – भारतीय धरोहर