डॉ. जितेंद्र बजाज।
यह प्रश्न करना कि अपनी प्राचीन ज्ञान परंपरा पर हमें क्यों चर्चा करनी चाहिए, स्वयं में एक विलक्षण प्रश्न है। दुनिया में किसी भी देश में इस प्रकार का प्रश्न नहीं पूछा जाता। यूरोप में यदि आप किसी से पूछें कि ग्रीक और लैटिन पढऩा क्यों आवश्यक है, तो वह आप पर हँसेगा। यूरोप का कोई भी व्यक्ति ग्रीक और लैटिन न जाने, वह बड़ा विद्वान नहीं हो सकता। इसी प्रकार यदि आप अरब में भी यह प्रश्न पूछेंगे तो लोगों को विचित्र लगेगा। उन्हें भी अरबी, फारसी और अपने प्राचीन ज्ञान को जानना स्वाभाविक रूप से आवश्यक लगता है।
यदि हम आज की भाषा की ही बात करें तो किसी भी भाषा में तब तक कोई भी ऊँचा लेखन संभव नहीं है, जब तक आप उसके प्राचीन साहित्य को नहीं जान लेते। यदि आप भाषा की परंपरा को नहीं जानेंगे तो आपको भाषा आएगी ही नहीं। आपको न उपमाओं का पता चलेगा, न शब्दों का पता चलेगा। भाषा परंपरा से ही समृद्ध होती है। जब मैंने हिंदी में लिखना चाहा तो पहले आग्रहपूर्वक रामचरितमानस पढ़ा, फिर शब्दकल्पद्रुम को उपयोग किया। उसमें कोई शब्द किस पुराण या अन्यान्य ग्रंथ में आया है, उसका उल्लेख है। आज मैं जो हिंदी जानता हूँ तो इसमें इन दोनों ग्रंथों का योगदान है। आज यदि साहित्य में कुछ अच्छा दिखता नहीं है, तो इसलिए कि हमारा अपनी प्राचीन साहित्य और उसकी परंपरा के साथ संबंध-विच्छेद हुआ है। विश्व का कोई भी महान साहित्य परंपरा से कट कर नहीं लिखा गया।
जिस प्रकार साहित्य में बिना परंपरा को जाने कुछ अच्छा और महान रचना नहीं की जा सकती, ठीक इसी प्रकार ज्ञान-विज्ञान की कोई भी शाखा को उसकी परंपरा को जाने आगे नहीं बढ़ाई जा सकती। उदाहरण के लिये यदि भारत में मेडिकल की पढ़ाई करने वालों का आयुर्वेद के साथ संपर्क रहा होता तो उनके काम में रचनात्मकता आ जाती। अभी केवल नकल दिखती है। यदि आप अपनी परंपरा के साथ जुड़ते हैं तो बड़ी रचनात्मकता आती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि आप वही करेंगे जो परंपरा में होता रहा है, बल्कि आप नया करेंगे और उसमें आप रचनात्मक होंगे।
यदि आप मेडिसिन की 1940 के आसपास की कोई पुस्तक उठा लें। उस समय तक एंटीबॉयोटिक नहीं थे, उनका आविष्कार द्वितीय महायुद्ध के बाद हुआ था, विटामिनों का अभी पता ही चला था, सर्जरी अधिक होती नहीं थी, क्योंकि एंटिबॉयोटिक नहीं थे। ऐसे में उनके उस समय की मेडिसिन की पुस्तकें किस पर आधारित थीं? वे आधारित थीं उनके ग्रीक पुस्तकों पर। हिप्पोक्रेटस और उसकी परंपरा में जो कुछ था, उसके आधार पर ही था। सबकुछ परंपरा में ही होता है। उसके बाहर तो कुछ होता ही नहीं है।
इसी प्रकार यदि हमें आज की समस्याओं को समझना चाहें तो इसके लिए भी अपनी ज्ञान परंपरा की जानकारी होनी चाहिए। अन्य लोगों को इसकी समझ भी नहीं आएगी। 1990 के आसपास हम भारत और विश्व में प्रतिव्यक्ति अनाज उत्पादन के आंकड़े एकत्र कर रहे थे। उस समय हमें आंकड़ों से यह पता चला कि प्रतिव्यक्ति उत्पादन और खपत के अनुपात की दृष्टि से भारत विश्व के अंतिम देशों में से है। इसका अर्थ यही है कि भारत में व्यापक स्तर पर भूखमरी है। हमने इस पर सभी से चर्चा की। योजना आयोग वालों से कहा तो उनका उत्तर होता था कि हमारी सभ्यता काफी पुरानी है और इतने वर्षों से खेती करने के कारण यहाँ की भूमि थक गई है और इसलिए यहाँ और उत्पादन नहीं बढ़ सकता। उनके मन में यही था कि इससे अधिक उत्पादन नहीं हो सकता। उस समय हमने सोचा कि इस विषय में भारत के प्राचीन साहित्य में क्या कहा गया है, इसे देखते हैं। उस समय मैंने उपनिषद, पुराण, रामायण, महाभारत आदि को पढ़ा। उनमें किए गए वर्णन के आधार पर हमने पुस्तक लिखी अन्नं बहु कुर्वीत। उसे पढऩे से ऐसा लगता है कि उन ग्रंथों में यह सारी चर्चा इसी समस्या को लेकर की गई है।
यह ठीक है कि उन ग्रंथों में यह सारी इसी समस्या को लेकर नहीं है, लेकिन उस समय यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है कि धर्मसम्मत समाज का यह कर्तव्य है कि वह अपने आसपास के लोगों का इतना ध्यान रखें कि उनमें से कोई भूखा न रहे। केवल सभी मनुष्यों का ही नहीं, बल्कि सभी जीवों का भी ध्यान रखें। यह ध्यान रखने के बाद ही आप धर्मसम्मत भोजन कर सकते हैं। यह हमारी परंपरा में है। परंतु यदि हम अपनी परंपरा को नहीं जानते हैं, तो हम योजना आयोग के लोगों की तरह ही सोच पाएंगे कि हमारे लोगों की आर्थिक क्षमता इतनी नहीं है कि वे अपना भोजन जुटा सकें। अपनी परंपरा को जानने वाले यह तर्क दे ही नहीं सकते। इसलिए परंपरा का तो प्रत्येक समस्या से संबंध है। अपनी परंपरा को जाने बिना अपनी समस्या का जो भी समाधान हम निकालेंगे, वे गलत समाधान होंगे।
परंपरा का संबंध हमारे विदेश राजनय से भी है। यदि आपको मालूम ही नहीं है कि आपका देश क्या रहा है, आपकी सभ्यता क्या रही है तो आप क्या राजनय निभाएंगे? दुनिया के लोग तो अपनी परंपरा से ही राजनय सीखते हैं। ग्रीक साहित्य में कैसे किसी समस्या को देखा गया, अन्य देशों के साथ कैसे संबंध बनाए गए, इससे लोग सीखते हैं। चीन भी अपनी परंपरा से सीखता है, जापान भी सीखता है। केवल हम ही नहीं सीखते। यहाँ तक कि ईरान जैसे देश में अभी कुछ दिनों पहले वहाँ के विदेश मंत्री का एक वक्तव्य था। उसने कहा था कि अमेरिका को उसे कुछ सिखाने की आवश्यकता नहीं है। वे कोई आज के देश नहीं हैं। उनकी सभ्यता इन बहुत सारे देशों से कहीं अधिक पुरानी है। वे जानते हैं कि विश्व मे क्या होता है। वे लड़े भी हैं, हारे भी हैं। फिर भी वे उठे हैं। इसलिए उन्हें अमेरिका से सीखने की आवश्यकता नहीं है।
हमारे राजदूत इस विश्वास के साथ कुछ कह सकते हैं क्या? क्या वे कह सकते हैं कि हमने महाभारत पढ़ा है और हमें पता है कि राजनीति क्या होती है? भारत में रामायण और महाभारत पढ़े बिना क्या आप दुनिया से संबंध बनाएंगे? किस प्रकार की चर्चा आप कर पाएंगे।
भारतीय ज्ञान परंपरा की उद्गाता ‘वैदिक संपत्ति’
भारत पर सभ्यतागत आक्रमणों में एक बडा आक्रमण यहां की ज्ञान परंपरा पर किया गया था। भारतीय ज्ञान परंपरा का सबसे बडा आधार थे वेद और इसलिए अंग्रेजों सहित समस्त यूरोपीय बौद्धिक जगत ने वेदों को निरर्थक साबित करने के लिए एडी-चोटी एक कर दिया था। सबसे पहले कहा गया कि वेद तो चरवाहे और गरेडिये आर्यों के लिखे गीत मात्रा हैं, इनमें किसी प्रकार का कोई दर्शन या विज्ञान नहीं है। फिर वेदों के व्यर्थता को साबित करने के लिए इनका अनर्गल भाष्य करने और वैदिक साहित्य को हीनतर साबित करने के लिए वैदिक साहित्य पर विभिन्न प्रकार के आरोप लगाने जैसे प्रयास भी किए गए। वेदों में वर्णित प्रकृति के रहस्यों पर आधारित आलंकारिक कथाओं को मनुष्य इतिहास के रूप में दिखाने और उसके आधार पर वेदों में अश्लीलता, चरित्राहीनता और अनर्गल प्रलापों के भरे होने के दावे किए गए। स्वाभाविक ही था कि वेदों को परम प्रमाण मानने और उन पर गहरी आस्था रखने वाले वैदिक सनातन समाज पर यह एक गंभीर सभ्यतागत आक्रमण था। इस आक्रमण का वैदिक समाज ने जोरदार सामना किया और इन सभी आरोपों के खंडन और वेदज्ञान की श्रेष्ठता को स्थापित करने के लिए विपुल साहित्य की रचना की। ऐसी ही एक पुस्तक है वैदिक संपत्ति।
वैदिक संपत्ति के लेखक हैं पंडित रघुनंदन शर्मा और यह पुस्तक आज से 84 वर्ष पहले 1932 में लिखी गई, परंतु इसकी विशेषता यह है कि इसमें जो बातें लिखी और कही गई हैं, वे सभी आज भी उतनी ही प्रासंगिक और उतनी ही प्रामाणिक हैं। वेदों पर लगाए गए आक्षेपों का उत्तर देने के क्रम में लेखक ने आधुनिक विज्ञान से लेकर इतिहासकारों तक पर जो प्रश्न उठाए हैं, वे भी आज तक उतने ही महत्वपूर्ण बने हुए हैं और अनुत्तरित भी हैं। वैदिक संपत्ति पुस्तक एक अनूठी पुस्तक है जिसमें काफी सारे विषयों पर बडी ही प्रामाणिक, अधिकृत और शोधपरक जानकारी दी गई है। इसकी विषय सूची को यदि हम पढें तो पाएंगे कि विषय इतने अधिक विविधतापूर्ण हैं कि किसी एक लेखक द्वारा इतने सारे विषयों पर इतने अधिकारपूर्वक लिखना असंभव सा प्रतीत होता है। परंतु पंडित रघुनंदन शर्मा ने इस असंभव से कार्य को संभव कर दिखाया है। इतिहास से लेकर भाषाविज्ञान तक, भूगोल से लेकर नृतत्वविज्ञान तक, राजनीतिशास्त्रा से लेकर समाजशास्त्रा तक, ज्योतिष से लेकर जीवविज्ञान तक इतने सारे शास्त्रों, विषयों और विज्ञानों पर इतने अधिकारपूर्वक इतना प्रामाणिक लिखा गया है अविश्वसनीय सा प्रतीत होता है, और लेखक के प्रति स्वाभाविक श्रद्धा जाग उठती है।
वेदों के बारे में यूरोपीयों के दुष्प्रचार का आज यह परिणाम हुआ है कि अधिकांश भारतीय विद्वान भी वेदों में मानव इतिहास को स्वीकार करने लगे हैं। स्थिति यह है कि प्राचीन भारत के इतिहास को लिखने वाला हर छोटा-बडा इतिहासकार वेदों को उद्धृत करता ही है। उसमें वर्णित नामों और मानवीय एवं खगोलीय घटनाओं को भारत के इतिहास से जोडता ही है। परंतु यदि भारत के ऋषियों की मान्यता देखें तो वेदों में इतिहास संभव ही नहीं है। भारतीय मान्यता स्पष्ट है कि वेद ईश्वर द्वारा सृष्टि के आरंभ में प्रकाशित किए गए हैं। ऐसे में उसमें बाद का इतिहास कैसे हो सकता है? प्रश्न उठता है कि यदि ऐसा है, तो फिर वेदों में आए नदियों, राजाओं, नगरों आदि नामों का क्या तात्पर्य है? पंडित रघुनंदन शर्मा ने पुस्तक के प्रारंभ में ही इस बात को साफ किया है और एक-एक नाम पर चर्चा की है। यह विवेचन काफी सरल और समझ में आने वाला है। इस अध्याय को पढने से वेदों में मानव इतिहास के होने के भ्रम का पूरी तरह निवारण हो जाता है।
वेदों की रचना और रचनाकाल को लेकर भी देश में काफी भ्रम है। आज का कोई भी व्यक्ति जो स्वयं को वैज्ञानिक सोच का मानता है, उसे वेदों की प्राकट्य सृष्टि के प्रारंभ में हुए होने की बात काल्पनिक और अविश्वसनीय लगती है। विशेषकर जबसे दुनिया में विकासवाद की परिकल्पना का प्रचार-प्रसार हुआ है, भारतीय शास्त्रों के विद्वान भी इसकी चपेट में आकर सनातन शास्त्रों की व्याख्या तदनुसार ही करने लगे हैं। उदाहरण के लिए कुछ लोग पुराणों में वर्णित अवतारों को विकासवाद की स्थापना के रूप में साबित करने का प्रयास करते हैं। परंतु विकासवाद की अवधारणा न केवल भारतीय स्थापना के विरूद्ध है, बल्कि वैज्ञानिक रूप से स्थापित भी नहीं है।
वेदों की प्राचीनता के अध्याय में पंडित रघुनंदन शर्मा ने बडी गहनता से विज्ञान की विभिन्न शाखाओं का विश्लेषण करते हुए विकासवाद पर जो प्रश्नचिह्न लगाए हैं, उनका उत्तर आज 84 वर्ष बाद भी विज्ञान के पास नहीं है।
वैदिक संपत्ति में आर्य आक्रमण सिद्धांत के उलट प्रारंभिक मनुष्यों यानी कि वैदिक भारतीयों के विदेशगमन के सिद्धांत को स्थापित किया गया है। लेखक की स्थापना है कि प्राचीन त्रिवष्टप या आज के तिब्बत के आस-पास मानव सृष्टि हुई और उसके बाद वहां से वे पूरी दुनिया में फैले। सुदूर इलाकों में लोग गए तो उनके रंग-रूप में परिवर्तन हुआ। इसके वर्णन में लेखक ने पूरी नृतत्वविज्ञान समझा दिया है।
भारत से बाहर गए विभिन्न कालखंडों में लोग कालांतर में वापस भी आए। ऐसे जिन विदेशी दलों का भारत में आगमन हुआ और उनका भारत पर जो प्रभाव पडा, उसकी भी गहन पडताल की गई है। यह अध्याय तो एकदम आँखें खोल देने वाला है क्योंकि आर्य बाहर से नहीं आए, यह कहते-कहते हम इसे भी उपेक्षित कर देते हैं कि भले ही आर्य कोई जाति नहीं थी और ऐसे कोई लोग बाहर से नहीं आए थे, परंतु वैदिक आर्यों की इस मूल बसावट में भी फिर भी विदेशी दलों का मिलान तो हुआ ही है। उनके कारण वैदिक साहित्य में कुछ गडबडियां भी हुई हैं। वैदिक साहित्य में हुई गडबडियों की चर्चा में भी रघुनंदन शर्मा ने स्तब्ध कर देने वाली जानकारियां दी हैं।
संहिताओं से लेकर उपनिषदों और ब्राह्मण ग्रंथों तक जो छेडछाड हुई है, उसे जानने के लिए वैदिक संपत्ति का यह अध्याय काफी उपयोगी है। आमतौर पर लोग महाभारत और पुराणों में ही गडबडियों को देखते हैं, परंतु छांदोग्य जैसे उपनिषद में भी कुछ छेडछाड हो सकती है, यह इसे पढे बिना समझना कठिन है। इसी क्रम में लेखक ने सती प्रथा के होने का भी सप्रमाण खंडन किया है। एकाध किसी घटना के आधार पर किस प्रकार एक प्रथा का बवंडर खडा किया गया और सनातन समाज को बदनाम किया गया, इसका जबरदस्त वर्णन किया गया है। इसे पढने से राजा राममोहन राय के काम पर बडा प्रश्नचिह्न लग जाता है।
वैदिक संपत्ति में लेखक ने वेदों के ज्ञान का विशद वर्णन किया है। वेदों में वर्णित समाज व्यवस्था, राज्य व्यवस्था सहित अन्यान्य विषयों का विस्तार से प्रतिपादन किया गया है। इसे पढने से वेदों का एक निर्भ्रांत और साफ चित्रा व्यक्ति के मन में उभरता है, अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा जागती है और भारत की सनातनता का विश्वास दृढ होता है। यह पुस्तक भारत के प्राचीन ज्ञान की एक जबरदस्त कुंजी है। यह भारतीय ज्ञान और वैदिक साहित्य पर लगाए गए समस्त आक्षेपों का निराकरण कर उनके सटीक उत्तर प्रस्तुत करती है और जो सवाल यह खडे करती है, आधुनिक विज्ञान उनपर आज भी निरूत्तर है।
यह पुस्तक गोविंदराम हासानंद, 4408, नई सड़क, दिल्ली 110006 से प्राप्त की जा सकती है।
लेखक :- डॉ. जितेंद्र बजाज
(लेखक समाजनिति अध्ययन केन्द्र, चेन्नई के निदेशक हैं)