
पार्थसारथि थपलियाल
जीवन के हर क्षण को आनंदमय बनाएं- सह-सरकार्यवाह
14 जून 2022 का यह सत्र महत्वपूर्ण था, ज्ञानवर्धक और भारतीयता से भरपूर। माननीय डॉ. मनमोहन वैद्य जो वर्तमान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह हैं, वे भारतीयता के मनीषी हैं। उनका पाथेय भारतीयता से भरपूर था। पाथेय शब्द का अर्थ उन्हें समझना आवश्यक है जो इस शब्द की संस्कृति से अनभिज्ञ हैं। पाथेय शब्द की उत्पत्ति पथ से हुई है। पथ का अर्थ है रास्ता या मार्ग। पथ शब्द पर एय प्रत्यय लगा कर नया शब्द बना पाथेय। पाथेय का ध्वनित अर्थ है मार्ग के लिए अथवा रास्ते का भोजन। ऐसा ज्ञान जिसे हम गांठ बांध कर अपने साथ ले जाते हैं पाथेय कहलाता है।
माननीय डॉ. मनमोहन वैद्य जी अपना पाथेय शुरू करते उससे पहले एक संभागी ने विगत सत्र में दिए गए ध्येय वाक्यों पर जिज्ञासा प्रकट की। तब माननीय डॉ. मनमोहन वैद्य जी ने बताया कि भारतीय संसद के लोकसभा एवं राज्यसभा में ध्येय वाक्य संस्कृत में लिखे हुए हैं। लोकसभा अध्यक्ष के आसन के ऊपर लिखा लिखा है- धर्म चक्र प्रवर्तनाय अर्थात धर्म परायणता के चक्र परिवर्तन के लिए। राज्यसभा में लिखा है- धर्मो रक्षति रक्षितः अर्थात धर्म उस धर्म रक्षक की रक्षा करता है जो धर्म की रक्षा करता है। उन्होंने बताया कि सर्वोच्च न्यायालय का ध्येय वाक्य है- सत्यमेव जयते अर्थात सत्य की ही जीत होती है। धर्मनिरपेक्षता पर पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा भारत स्वभाव से सर्वधर्म सम भाव रखता है फिर धर्मनिरपेक्ष शब्द की क्या आवश्यकता। भारतीय सांविधान की प्रस्तावना में यह शब्द नही था। यह शब्द आपातकाल के दौरान 1976 में अनावश्यक संशोधन कर डाला गया। भारतीय स्व की अभिव्यक्ति हमारी संसद और न्यायालयों में उत्कीर्ण दिखाई देने वाले आदर्श वाक्यों में निहित है।
माननीय डॉ.मनमोहन वैद जी ने अपनी बात एक बहुत सरल और प्रचलित कहानी से शुरू की। कहानी कछुवे और खरगोश की दौड़ की थी। इसे आप और हम सभी जानते हैं। लेकिन उन्होंने जिस तरह कहानी का विश्लेषण किया वह अद्भुत था। खरगोश को नींद आ गई। यह है पढ़ा है, लेकिन यह भी तो संभव है खरगोश ने जानबूझकर कछुवे को जीतने का मौका दिया हो…. उन्होंने कहानी को सहज भाव से दूसरे दृष्टिकोण से बताया। मैं जा रहा था, रास्ते मे मुझे खरगोश मिल गया। मैंने खरगोश से पूछा कि तुम इतने दौडनेवाले और कछुवे से पिछड़ गए? तब खरगोश ने बताया- मैं जानतां हूँ कि कछुवा मेरे बराबर नही दौड़ सकता। मुझे आराम करने की जरूरत हुई तो मैं सो गया। उठा तो कछुवा मेरे सामने घिस घिस कर जा रहा था। मैंने उसे जाने दिया कभी तो कछुवे को भी जीतने का अवसर मिलना चाहिए। बाहर गर्मी थी आगे बढ़ते हुए मुझे एक तालाब दिखाई दिया मैंने तालाब में छलांग लगा दी। तालाब में तैरने का बहुत आनंद लिया।…… बात उपस्थित सँभागियों के दिल और दिमाग तक पहुंच चुकी थी। तालियों की गड़गड़ाहट से सभागार गूंज उठा। यह नही कि माननीय मनमोहन वैद्य जी ने कोई नाटक कर दिया बल्कि एक दृष्टिकोण दिया। हमने अपने जीवन को आनंदमय बनाने की बजाय प्रतियोगितामय बना दिया है। एक पक्षीय सोच सफलता तो दे देगी लेकिन जीवन के जो विभिन्न आनंद हैं उनसे हम वंचित हो जाते हैं।
जीवन मे स्पष्टता को भी उन्होंने इसी तरह रेखांकित किया। उन्होंने बताया कि व्यक्ति हर काम को नफा नुकसान से देखता है। देखना भी चाहिए। न देखें तो नुकसान उठाना पड़ सकता है। इसीलिए एक शब्द है विवेक। इस शब्द में में संतुलन की शक्ति है। उन्होंने एक उदाहरण दिया – एक लेखक बढ़िया हैंडराइटिंग में लिखता था। एक दिन उसे लगा कि वह बहुत बड़ा बड़ा लिखता है। एक पेज की सामग्री दो पेज तक चली जाती है क्यों न कुछ निकट निकट (घना घना) लिखा जाय। इस प्रकार अभ्यास करने से उसने एक पेज की बचत करना शुरू कर दिया। अब उसे लगा कि शब्दों को एकदम सटा सटा कर लिखा जाए। अब ऐसी स्थिति हो गई कि पढ़ा कुछ जाय और समझा कुछ जाय। बल्कि कुछ दिन बाद शब्दों को पढ़ना भी कठिन हो गया। लेखन का सौंदर्य और पठान का आनंद समाप्त हो चुका था। जीवन का सौंदर्य निकटता की बजाय उचित अंतराल में है। लिखने में ही नही सामान्य जीवन मे भी स्पेस रहना चाहिए। मित्रता में, पारिवारिक संबंधों में, समाज में हर जगह अपने ही ढंग के स्पेस की आवश्यकता रहती है। जीवन मे स्पष्टता और सुखमय जीवन के लिए उचित अंतराल या space खुशियां भर लाता है।
सह-सरकार्यवाह डॉ. मनमोहन वैद्य जी के पाथेय का भाग 2 क्रमशः