समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली, 28नवंबर। ये राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता सिनेमैटोग्राफर, लेखक, अभिनेता और निर्देशक अनिल मेहता द्वारा “सिनेमैटोग्राफर के जीवन को परिभाषित करने वाले सिद्धांत” के रूप में साझा किए गए कुछ महत्वपूर्ण सूत्र हैं।
53वें भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (इफ्फी) के दौरान ‘गाइडिंग लाइट्स’ नामक एक मास्टरक्लास की अध्यक्षता करते हुए, अनिल मेहता ने बताया कि तस्वीरें छायाकारों को आकर्षित करती हैं। उन्होंने कहा कि व्यवहार में, सिनेमैटोग्राफी अप्रत्याशित चीजों, मौका, व्याख्या और व्यक्तिगत पसंद द्वारा निर्देशित होती है।
मेहता की प्रसिद्ध फिल्मों में लगान (2001), साथिया (2002), कल हो ना हो (2003), वीर-ज़ारा (2004), कभी अलविदा ना कहना (2006) और ऐ दिल है मुश्किल (2016) शामिल हैं।
उन्होंने कहा कि एक सिनेमैटोग्राफर की भाषा अलग होती है। अनुभवी सिनेमैटोग्राफर का मानना है कि सिनेमैटोग्राफी की दृष्टि से काम की तादाद वास्तव में कोई मायने नहीं रखती है।
भविष्य के डीओपी के लिए उनकी सबसे मूल्यवान सलाह क्या है? इसके जवाब में मेहता ने कहा, “आपको निर्देशक के साथ खुली बातचीत शुरू करनी चाहिए और यह अधिकांश सुनने को लेकर है। सिनेमैटोग्राफी सुनने के बारे में भी है। हालांकि यह एक काम की तरह लगता है, जहां आप बहुत से लोगों से बात करते हैं, अपने संसाधनों को प्रबंधित करते हैं और काम पूरा करते हैं।”
भारत में वर्चुअल प्रोडक्शन पर अनिल मेहता ने कहा, “हमने अभी तक यह जानने के लिए पर्याप्त काम नहीं किया है कि यह कहां जाएगा।”
मेहता ने अपनी कुछ प्रसिद्ध परियोजनाओं (फिल्मों) जैसे कि खामोशी, बदलापुर और सुई-धागा के बारे में डीओपी के दृष्टिकोण को समझाया। इसके अलावा उन्होंने अपने कुछ विचारों को नवोदित सिनेमैटोग्राफर/डीओपी के साथ साझा किया:
• एक डीओपी जिस दिन से पटकथा पढ़ना शुरू करता है, उस दिन से उन्हें यह सोचने का प्रयास करना चाहिए कि कैमरा कैसे लगाया जाए।
• व्यक्तिगत रूप से अनिल मेहता को स्टोरीबोर्ड बनाना पसंद नहीं है।
• अगर आपके पास दृश्य की एक समझ है और आप जानते हैं कि इसे कैसे प्रदर्शित करना है, तो आपका काम आधा हो गया।
• शॉट की लय कुछ ऐसी है, जिसका सिनेमैटोग्राफर केवल अनुभव कर सकता है।
• फिल्म की शूटिंग के दौरान बहुत बार शॉट्स सामने आते हैं।