महिला पहलवानों ने दिल्ली पुलिस को चारों खाने चित किया. कमिश्नर,आईपीएस सत्ता के लठैत मत बनो. पुलिस का अमानवीय, संवेदनहीन चेहरा उजागर. विपक्ष द्वारा पीड़ितों की आवाज उठाना क्या गुनाह है

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इंद्र वशिष्ठ 

महिला पहलवानों के मामले ने देश की राजधानी दिल्ली की पुलिस के दावों की धज्जियां उड़ा दी. पुलिस को चारों खाने चित्त कर दिया.
दिल्ली पुलिस द्वारा महिलाओं के प्रति संवेदनशील होने और एफआईआर आसानी से दर्ज किए जाने का दावा किया जाता है. लेकिन महिला पहलवानों के मामले ने दिल्ली पुलिस के इन दोनों ही दावों की पोल खोल कर पुलिस का असली चेहरा उजागर कर दिया है.
पुलिस कमिश्नर संजय अरोड़ा और आईपीएस अफसरों की भूमिका, पेशेवर काबलियत और निष्ठा पर सवालिया निशान लगा दिया है.
महिला पहलवानों ने 21 अप्रैल 2023 को कनाट प्लेस थाने में कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष भाजपा सांसद बृज भूषण सिंह के ख़िलाफ़ यौन शोषण/ उत्पीड़न की शिकायत दी. बृज भूषण शरण सिंह का अच्छा खासा आपराधिक इतिहास रहा है.
आरोप है कि पुलिस ने शिकायत प्राप्त होने की रसीद देने में ही दो घंटे लगा दिए.
महिला पहलवानों की शिकायत पर पुलिस ने  एफआईआर दर्ज नही की.
एफआईआर दर्ज न करना अपराध है –
आईपीसी की धारा 166 ए में साफ कहा गया है कि महिला के यौन शोषण/ उत्पीड़न संबंधी अपराध के मामले में एफआईआर दर्ज न करना दंडनीय अपराध है. एफआईआर दर्ज न करने वाले पुलिस अफसर के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज की जाए. ऐसे पुलिस वाले को दो साल तक की कैद की सज़ा और जुर्माने का प्रावधान है.
कमिश्नर जिम्मेदार-
इस मामले में एफआईआर तुरंत दर्ज न करने के लिए पुलिस कमिश्नर संजय अरोड़ा मुख्य रूप से जिम्मेदार/ कसूरवार है क्योंकि सत्ताधारी दल के सांसद के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज न करने का निर्णय एसएचओ, एसीपी, डीसीपी और स्पेशल कमिश्नर अपने स्तर पर अकेले खुद तो ले ही नहीं सकते. यह निर्णय सामूहिक रूप से लिया गया होगा. इसलिए इस मामले में उपरोक्त सभी जिम्मेदार हैं.
सुप्रीम कोर्ट में गुहार-
महिला पहलवानों को एफआईआर दर्ज कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगानी पड़ी, तब जाकर 28 अप्रैल को एफआईआर दर्ज की गई.
एफआईआर दर्ज किए जाने के बाद भी पुलिस पर तफ्तीश ठीक तरह से नहीं किए जाने के आरोप लगाए गए हैं.
शिकायतकर्ता महिला पहलवानों के बयान भी कई दिनों बाद दर्ज किए गए.
आचरण सुधारों-
दिल्ली पुलिस अपनी छवि बनाने के लिए लाखों रुपए विज्ञापनों पर भी खर्च करती है. पुलिस यह भूल जाती है कि छवि विज्ञापनों से नहीं, उसके आचरण/व्यवहार से बनती है.
पुलिस दावे तो बड़े-बड़े करती है लेकिन आचरण उसके विपरीत करती है इसलिए आम आदमी का पुलिस पर भरोसा नहीं है.
पहलवानी में देश का नाम रौशन करने वाली पहलवानों की शिकायत पर पुलिस एफआईआर दर्ज नही करती है, तो आम आदमी की शिकायत पर क्या/कैसी कार्रवाई होती होगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है.
आईपीएस सत्ता के लठैत मत बनो-
महिला पहलवानों के मामले ने एक बार फिर साबित कर दिया कि पुलिस सत्ता के लठैत की तरह ही काम करती है. आईपीएस अफसर शपथ तो संविधान और कानून के प्रति निष्ठा और ईमानदारी से कर्तव्य पालन की लेते हैं, लेकिन असल में उनकी सारी निष्ठा, वफादारी सत्ताधारी दल के नेताओं के प्रति ही होती है. पुलिस अपने आचरण से यह बात साबित भी कर देती है.
सरकार चाहे किसी भी दल की हो सेवा के दौरान महत्वपूर्ण पद और रिटायरमेंट के बाद भी पद के लालच में आईपीएस अफसर सत्ताधारी दल के नेताओं के सामने नतमस्तक हो जाते है. ऐसे आईपीएस ही खाकी को खाक में मिला देते हैं. आईपीएस अगर ईमानदारी से अपने कर्तव्य का पालन करने वाला हो, तो राजनेता उसे अपनी कठपुतली नहीं बना सकते.
सच्चाई तुरंत सामने लाते-
महिला पहलवानों के मामले को ही लें. पुलिस को शिकायत पर तुरंत एफआईआर दर्ज करनी चाहिए थी, पुलिस जल्द से जल्द तफ्तीश पूरी करके दिखाती, ताकि जल्दी पता चलता कि आरोप सही हैं या गलत.
अगर अपराध दिल्ली पुलिस के इलाके में नहीं हुआ है, तो भी जीरो एफआईआर दर्ज करके संबंधित थाने में एफआईआर भेज देते. जैसे कि आसाराम बापू के मामले में दिल्ली पुलिस ने कमला मार्केट थाने में जीरो एफआईआर दर्ज की, नाबालिग लड़की का मैजिस्ट्रेट के सामने बयान दर्ज कराया और जीरो एफआईआर राजस्थान के संबंधित थाने में भेज दी थी.
पुलिस अपने कर्तव्य का ईमानदारी से पालन करती, तो पुलिस की छवि भी अच्छी बनती और महिला पहलवानों को धरना भी नहीं देना पड़ता.
शर्मनाक-
दिल्ली पुलिस कमिश्नर और गृह मंत्री को शर्म आनी चाहिए, कि एफआईआर दर्ज कराने के लिए भी महिला पहलवानों को सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगानी पड़ी.
महिला पहलवानों के धरने ने पुलिस और केंद्र सरकार के असली चेहरे को उजागर कर दिया है. भाजपा बेटी बचाओ का नारा लगाती है लेकिन दूसरी ओर बेटियों को एफआईआर दर्ज कराने और न्याय पाने के लिए धरना देना पड़ता है.
अंग्रेजों वाली सोच-
अंग्रेज चले गए लेकिन पुलिस अभी भी उसी सत्ता के लठैत वाली मानसिकता/ सोच से काम कर रही है. आम जनता से दुश्मन जैसा व्यवहार करती है.
नेताओं का जाना क्या गुनाह है ?-
पहलवान जंतर मंतर पर धरना दे रहे हैं.
बरसात के कारण उनके गद्दे/बिस्तर गीले हो गए.
आम आदमी पार्टी के नेता सोमनाथ भारती फोल्डिंग पलंग लेकर पहुंच गए. लेकिन पुलिस ने उन्हें वहां जाने से रोक दिया और हिरासत में ले लिया.
संवेदनहीनता
इसका मतलब पुलिस चाहती थी, कि महिला पहलवान गीले बिस्तर पर सोए या तंग आकर वह यहां से चली जाएं.
पुलिस में इंसानियत/ संवेदनशीलता नाम की कोई चीज़ है या नहीं ?.
दिल्ली पुलिस किसान आंदोलन के दौरान  सिंघु बार्डर पर धरना दे रहे किसानों के लिए  भेजे गए पानी के टैंकरों को रोक कर पहले भी अमानवीयता का परिचय दे चुकी है.
कांग्रेस के सांसद दीपेंद्र हुड्डा अकेले ही पहलवानों से मिलने जाना चाहते थे, लेकिन पुलिस ने उन्हें भी रोक दिया.
दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल और पत्रकार साक्षी जोशी को भी पुलिस ने रोका और हिरासत में लिया.
देश की राजधानी में जनता के चुने हुए सांसद, विधायक ,पत्रकार या आम आदमी का पीड़ितों के पास धरना स्थल पर जाना, मदद/ समर्थन करना क्या कोई अपराध है?
पुलिस ने धरना स्थल की जबरदस्त घेराबंदी करके एक तरह से पहलवानों को कैद कर दिया है.  पहलवानों को लोगों से अलग थलग कर दिया गया है.
क्या देश द्रोही हैं ?-
पुलिस इस तरह से व्यवहार करती है जैसे कि धरना/ प्रदर्शन करने वाले देशद्रोही हैं और उनसे मिलने जाने वाले भी देशद्रोही है.
अगर कोई पीड़ित व्यक्ति धरना/ प्रदर्शन कर रहा है तो उसका समर्थन करना, उसकी मदद करना तो विपक्ष के दलों का कर्तव्य होना चाहिए.
मीडिया और विपक्ष ही अगर पीड़ितों की आवाज नहीं उठाएगा, तो कौन उठाएगा ?
दो एफआईआर दर्ज-
पहलवान एफआईआर दर्ज कराने/ कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष बृज भूषण शरण सिंह की गिरफ्तारी की मांग को लेकर जंतर मंतर पर 23 अप्रैल से मोर्चा खोले हुए हैं.
पहलवानों द्वारा सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाने के बाद दिल्ली पुलिस ने 28 अप्रैल को महिला पहलवानों की यौन शोषण/उत्पीड़न की शिकायत पर बृजभूषण सिंह के खिलाफ दो मामले दर्ज किए. नाबालिग पहलवान की शिकायत पर पहली एफआईआर में बृजभूषण के खिलाफ पॉक्सो एक्ट लगाया गया है. दूसरी एफआईआर बालिग महिला पहलवानों की शिकायत पर दर्ज की गई है.
एफआईआर में देरी क्यों? –
एफआईआर तुरंत दर्ज न किए जाने के बारे में स्पेशल कमिश्नर स्तर के एक पुलिस अफसर का कहना है कि घटनाएं कई साल पुरानी हैं उनके बारे में इंक्वायरी/ पड़ताल करने के लिए समय चाहिए था, इसलिए एफआईआर तुरंत दर्ज नही की गई.
फटकार-
महिला पहलवानों की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में 4 मई को सुनवाई हुई. इस दौरान सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली पुलिस को फटकार लगाते हुए पूछा कि अब तक सभी पीड़िताओं के बयान क्यों दर्ज नहीं किए गए? इतना ही नहीं कोर्ट ने पूछा कि कब इनके बयान मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज कराए जाएंगे. पहलवानों ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर कहा था कि पुलिस मामले की ठीक से जांच नहीं कर रही है.
स्पेशल कमिश्नर ने छेड़छाड़ की-
दिल्ली पुलिस के एक स्पेशल कमिश्नर के ख़िलाफ़ महिला एएसआई ने छेड़छाड़ का आरोप मार्च 23 में लगाया था लेकिन अभी तक स्पेशल कमिश्नर के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की गई.
विपक्ष को स्पेशल कमिश्नर के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज कराने के लिए भी आवाज उठानी चाहिए.
सीबीआई ने बचाया बृजभूषण शरण सिंह को
भारतीय जनता पार्टी के  सांसद बृजभूषण शरण सिंह को साल 1997 में बरी कराने में सी. बी. आई. ने अहम भूमिका निभाई थी.
दाऊद इब्राहीम गिरोह के सदस्य सुभाष सिंह ठाकुर जयेद्र ठाकुर उर्फ भाई ठाकुर तथा परेश मोहन देसाई अपने इकबालिया बयान में साफ कह चुके थे कि जे. जे. अस्पताल (मुम्बई) के हत्याकांड के बाद उन्होंने तत्कालीन सांसद बृज भूषण के सरकारी निवास पर शरण ली. इसके बावजूद सी. बी. आई ने इस संबंध में दस्तावेजी प्रमाण एकत्र नहीं किए.
अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश शिवनारायण घोगरा ने राज्य बनाम सुभाष सिंह ठाकुर आदि मामले में दिए गए फैसले में सी. बी. आई. की कार्यप्रणाली पर गंभीर टिप्पणी की है.उन्होंने कहा सी. बी. आई. के व्यवहार से लगता है कि कुछ लोग कानून से ऊपर है.
अदालत ने कहा कि दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा में सुभाष सिंह ठाकुर, भाई ठाकुर, श्याम किशोर गरिकापती चंद्रकांत अन्ना पाटिल उर्फ छोटू तथा परेश मोहन देसाई को 23 जुलाई 1993 को गिरफ्तार किया. 26 जुलाई को यह मामला केंद्रीय जांच ब्यूरो को सौंप दिया गया.12 अगस्त तक अभियुक्तों के इकबालिया बयान दर्ज कर दिए गए. सुभाष ठाकुर, भाई ठाकुर और परेश मोहन देसाई अपने बयान में सी. बी. आई. को बता चुके थे कि उन्होंने बृजभूषण शरण सिंह के 25 मीना बाग स्थित सरकारी निवास पर शरण ली.सांसद के टेलीफोन उन्होंने दाऊद इब्राहीम गिरोह के अन्य सदस्यों संपर्क किया.
न्यायाधीश ने कहा कि इस महत्वपूर्ण जानकारी के बावजूद सी. बी. आई. ने सांसद के घर लगे टेलीफोन से किए काल के दस्तावेज एकत्र नहीं किए सी. बी. आई. ने अभियुक्त चंद्रकांत अन्ना पाटिल के फोन के तो सारे रिकार्ड इकट्ठे करके उनकी जांच-पड़ताल की, जबकि सांसद के मामले में ऐसा नहीं किया गया.सांसद के टेलीफोन नंबर का रिकार्ड अभियुक्तों इकबालिया बयान से मेल खाने पर एक ठोस सबूत के रूप आ सकता था। इससे सी. बी. आई. की दोगली नीति उजागर होती है.दरअसल, सी. बी. आई. राजनेताओं के विरुद्ध आए सबूतों को ठंडे बस्ते में डाल देना चाहती थी.
अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने सी. बी. आई. की कार्यशैली पर टिप्पणी करते हुए कहा कि दरअसल सी. बी. आई. की तरह ही अन्य जांच एजेंसियां यह मान चुकी हैं कि अपराधियों तथा माफियाओं और राजनेताओं के गठजोड़ को स्थायित्व मिल गया है इस बारे में जांच न करना ही बेहतर है।
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