अमित शाह के दौरे ने भाजपा को उत्साहित कम किया, डराया ज्यादा!

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वरिष्ठ पत्रकार, राजनीतिक समीक्षक हेमंत पाल
इस बार का विधानसभा चुनाव कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए कांटा-जोड़ होने के साथ प्रतिष्ठा की लड़ाई भी है। भाजपा के सामने बड़ी चुनौती अपने आदिवासी वोट बैंक को बचाकर खोई सीटें फिर पाने की है। जबकि, कांग्रेस को अपना जनाधार बरक़रार रखना है, ताकि पार्टी सरकार बनाने लायक बहुमत पा सके। इंदौर आकर अमित शाह ने बूथ कार्यकर्ताओं को उत्साहित करने के बहाने भाजपा को डरा जरूर दिया! गृह मंत्री के इंदौर के आयोजन को भले ही मालवा-निमाड़ कहा जा रहा हो, पर ये मालवा के 9 जिलों तक सीमित था। निमाड़ पर अभी ध्यान नहीं दिया गया।

शायद इसी की तात्कालिक प्रतिक्रिया ये हुई कि कांग्रेस ने चुनाव अभियान की जिम्मेदारी ही आदिवासी नेता कांतिलाल भूरिया को सौंप दी। पर, भाजपा अभी तक ऐसा कोई साहसिक प्रयोग नहीं कर सकी। शायद इसलिए कि भाजपा के पास ऐसे चमत्कारिक आदिवासी नेता की कमी है, जिसका जादू चलता हो! कांतिलाल भूरिया को कमान सौंपने से कोई आसमान फाड़ बहुमत तो नहीं बरसेगा, पर इससे आदिवासी मतदाताओं में भरोसा बनेगा।

प्रदेश में तीसरा बड़ा वोट बैंक आदिवासियों का ही हैं। अमित शाह ने इसी गणित को समझकर बूथ कार्यकर्ताओं को जीत का फार्मूला देने की कोशिश की। लेकिन, भाजपा की इस फोरी कवायद से बाजी पलट जाएगी, ऐसा नहीं लगता। पार्टी को आदिवासियों के दिल में उतरना होगा, तभी कुछ हो सकेगा। अमित शाह के इंदौर दौरे से भले भाजपा खुद ही उत्साहित हो रही हो, पर अमित शाह की बात जनता को समझ नहीं आई! बल्कि, उनकी जो बातें रिसकर बाहर आई उससे अब यह साफ़ हो गया कि प्रदेश के नेताओं की क्षमता पर भाजपा के बड़े नेताओं को अब उतना भरोसा नहीं है, जितना पहले था।

पिछले चुनाव की हार की कसक अभी भाजपा के बड़े नेता भूले नहीं हैं। यही कारण है कि वे जीत के फार्मूले भी खुद गढ़कर लाए और ये भी कहा कि मैं सीधे बात करूंगा। पिछले 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को मालवा-निमाड़ में तगड़ा झटका लगा था। भाजपा उस चुनाव में इंदौर संभाग की 37 में से 21 सीटों पर हार गई थी। भाजपा संभाग की 16 सीट ही जीत सकी थी। इसके बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने आदिवासी इलाके को फोकस जरूर किया, पर बदले में आदिवासियों का मूड बदला हो, ऐसा अहसास नहीं हुआ! इसका बड़ा कारण इंदौर संभाग के चार जिलों धार, झाबुआ, बड़वानी और आलीराजपुर के आदिवासी नेताओं की कमजोरी है, जो अपने राजनीतिक फायदे के लिए पार्टी का उपयोग करते हैं।

सर्वे कंपनी करेगी दावेदारों का फैसला चुनाव के दावेदारों का रोजनामचा अमित शाह जरूर अपने साथ ले गए हों, पर इससे लगता नहीं कि कोई निष्कर्ष निकलेगा। इसलिए कि जो फैसला होगा, वो उस सर्वे रिपोर्ट से होना है जो गुजरात की एक कंपनी को सौंपा गया है। उस कंपनी के सर्वे करने वाले पिछले दिनों इंदौर में अपने पहले राउंड का सर्वे करके भी गए हैं। इस दौरे में अमित शाह का फोकस पूरी तरह बूथ कार्यकर्ता और इंदौर संभाग की 37 सीटों पर था। उन्होंने बैठक में जिलेवार सभी 9 जिलों की समीक्षा की। साथ ही 2018 के चुनाव की हार-जीत की समीक्षा रिपोर्ट और 37 सीटों की संभावित प्रत्याशियों की लिस्ट और अन्य जानकारी दिल्ली लेकर गए हैं। उनका कहना था कि इन 37 सीटों पर पार्टी जिसे भी टिकट दे, उनका चेहरा देखकर नहीं, बल्कि कमल का फूल देखकर काम करने के लिए कहा जाए। शाह का यह भी संदेश था कि कोई भी कार्यकर्ता नकारात्मक बात न सोचे न बात करें। सबके मन में मेरी सरकार सबसे अच्छी सरकार की बात होनी चाहिए।

37 में से ज्यादातर सीटें जीतना लक्ष्य बने
चुनाव के रणनीतिकारों की बैठक में अमित शाह का रुख काफी कड़क था। उन्होंने बेहद सख्त लहजे में कहा भी कि इस बार के चुनाव में किसी भी स्थिति में 2018 जैसी स्थिति नहीं बनना चाहिए। हमें 37 में से ज्यादातर सीटें जीतना ये लक्ष्य सामने हो! इस चुनाव में संगठन की भूमिका पर भी उन्होंने अपना नजरिया बताया। बताते हैं कि उन्होंने पार्टी के नेताओं को कड़े शब्दों में कहा कि आप बड़े नेताओं के सामने शक्ति प्रदर्शन करने के बजाय बूथ पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं पर ध्यान दें। इससे यह भी लगता है कि वे बड़े नेताओं के अहम से खासे नाराज हैं। अभी अमित शाह ने मालवा को परखा है । निमाड़ की सीटों की समीक्षा होना बाकी है।

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