प्रसंग : मानवीय संवेदना ही हिंदू

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पार्थसारथि थपलियाल
संयोजक- भारतीय संस्कृति सम्मान अभियान
गंभीर पीड़ाएं होती हैं जब कोई अपने पिता, अपनी माता का समान नही करता। जब कोई बिना ज्ञान के उपनिषदों के मर्म को इस तरह व्यक्त करता है जैसे कि उसने समस्त वेद और उपनिषद पढ़ लिए हैं। यह तथ्य उतना ही सत्य हो सकता है जितना गधे की पीठ पर रखा चंदन की लकड़ियों का गट्ठर से आशय निकाला जाय कि गधा भी विद्वान है। जिन्हे ज्ञान होता है वे मिथ्या भाषण या प्रलाप नही करते। अगर अपने समान लौंडे लपाड़ों के साथ कोई हंसी ठिठौली कर भी ले तो चलेगा, क्योंकि सभी उसी मानसिकता के होते हैं। यह तमीज किसी भी वक्ता में होनी चाहिए कि वह जब “नाना के सामने ननिहाल की बातें” सुना रहा हो उसे संयम से बोलना चाहिए। दो लोग बहुत बलवान होते हैं- मामा के साथ खेलता हुआ भानजा और भीड़ के सामने शेखी बघारता मूर्ख। भानजे को अपने मामा पर गुरूर होता है और मूर्ख को अपने जैसे समुदाय पर। बोलना एक अभिव्यक्ति है लेकिन दायित्वपूर्ण बोलना एक कला है। शोर शराबे और तालियों की आयु बहुत छोटी होती है सम्यक भाषण दीर्घ जीवी होता है जैसे स्वामी विवेकानंद ने कहा था- “गर्व से कहो मैं हिंदू हूं।” यह वाक्य एक मंत्र बन गया है। इस महावक्य का भावपक्ष वही समझ सकता है जिसने हिंदू का की कोख से जन्म लिया हो। जिसने हिंदुत्व को आत्मसात किया हो। बहुरूपियों पर ज्ञान तत्व का भरोसा करना ठीक नहीं।

गत एक वर्ष से उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम तक हिंदू शब्द को अनेक दुष्ट लोगो ने मिटाने के आंदोलन और सेमिनार चलाए। इन लोगों के नाम लेना भी पाप के दायरे में आता है। नरेश सक्सेना की एक कविता है –

नदी में धंसे बिना पुल का अर्थ भी समझ नही आता
नदी में धंसे बिना पुल पार करने से पुल पार नही होता

सिर्फ लोहा लक्कड़ पर होता है…..
जनवरी 2025 में प्रयागराज में महाकुंभ आयोजित होगा। इस महाकुंभ में हिंदू शब्द को जानने का एक सुयोग आने वाला है। विश्व में लोकमंगल की कामना के लिए त्रिवेणी घाट पर उमड़ता जन सैलाब। सब का उद्देश्य इहलाेक और परलोक सुधारना है। लोक और परलोक के लिए इस मंथन में शस्त्र और शास्त्र पर विभिन्न प्रवचन व प्रदर्शनों से लोगों की भेंट होती है। भाव यह कि हिंदू संस्कृति में आदि गुरु शंकराचार्य ने दोनो के ज्ञान को जीवन के लिए आवश्यक माना। जिन लोगों को यह आयोजन ढोंग लगता हो इसे मूर्खों के कुतर्कों का उत्तर देना भी मूर्खता होगी। क्योंकि कुतर्की अपने स्तर तक ले जाता है जैसे भारतीय संसद में एक कुतर्की ने फिलिस्तीन के समर्थन में नारे लगाकर किया। सम्यक संभाषण के लिए वयोवृद्ध से अधिक महत्वपूर्ण विचारवृद्ध होने की आवश्यकता है। भारतीय चिंतन का यह मर्म मूर्खों तक पहुंचना चाहिए कि-

न सा सभा यत्र न संतु वृद्ध:
वृद्ध: न ते ये न वदंति धर्म:।
धर्म: स नो यत्र न सत्यमस्ति,
सत्यम न तद्यच्छलमभ्युपैति।।

अर्थात “वह सभा सभा नही है जिसमे कोई वृद्ध न हो। वे वृद्ध वृद्ध नही हैं जो धर्म की बात न करते हों, वह धर्म धर्म नही है जिसमे सत्य न हो वह सत्य भी से नही है जो कपटपूर्ण हो।”
रही धर्म की बात उसे समझने के लिए पात्रता की आवश्यकता होती है। पात्र अगर उल्टा है तो कितना ही अमृत डालो पात्र खाली ही रहेगा।
जिस धर्म में सभी के सुख की कामना इन भावों में हो कि “लोका समस्ता सुखिनो भवन्तु”। ऐसा व्यक्ति, ऐसी शक्ति कभी हिंसक नही हो सकती। हर देवता के पास सिद्धि होती है जो शास्त्र से मिलती है और शस्त्र होता है जो अवसर आने में विनाश कारक होता है। झोला छाप डॉक्टर और अल्पज्ञानी वक्ता दोनों समाज के लिए घातक हैं। घातक लोगों को ऐसे स्थान से दूर रखना चाहिए जो मंतव्य स्थापित करने के दुष्प्रयास करते हों।

हिंदू शब्द के लिए शैव ग्रंथ में लिखा है-
“हीन च दुष्यतेव हिंदूरित्युच्चते” अर्थात जो अज्ञानता और हीनता (अहसास-ए-कमतरी) को छोड़ दे, वह हिंदू है। इस देश में साल भर से हिंडन के विरुद्ध एक मंतव्य स्थापित किया जा रहा है। धर्मनिरपेक्षता वाले इस मंतव्य पर अपनी रोटी सकते हैं। और हां मुफ्त का माल खाने वाले भी तो वही हैं। जरा भी लाज बाकी हो तो राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की इस कविता को याद रखें-
जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है
वह नर नही, नर पशु निरा और मृतक समान है।।

जब चारों तरफ से लोक जागरण हो रहा हो तब जागना आवश्यक है। इन पीड़ाओं का हल एक ही है गर्व से कहो हिंदू शब्द मानवीय संवेदनाओं का नाम है। मजहब नहीं है।

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