सुमन्त भट्टाचार्य।
आपको नीलू याद है ? नीलू धीवर। मध्य प्रदेश के बालाघाट की किशोरी।
नहीं याद तो कोई बात नहीं। सात-आठ साल हो भी चुके हैं इस बात को। नीलू के पिता नहीं थे, बांस की टोकरी बना कर परिवार चलाती थी। मां और बहनों का परिवार।
लेकिन बांस की टोकरी के लिए बांस जंगलात महकमें से खरीदना पड़ता। लागत ही इतनी आ जाती की टोकरी पर की गई मेहनत भी नहीं निकल पाती। बाजार के अपने नियम है। फिर हाथों से काम करने की अपनी सीमाएं हैं। और यदि जंगल से बांस खुद काट लिए तो “वृक्ष संरक्षण कानून” के तहत फारेस्ट डिपार्टमेंट की जेल में गए।
ऐसा होता था, क्योंकि उस वक्त बांस को कानून ने “पेड़” करार कर रखा था। यह धतकरम अंग्रेजों ने किया या आजाद भारत की सरकार ने। अपन को नहीं पता। हालांकि आप अपनी स्कूलों की किताबों और प्रतियोगी परीक्षाओं में लिखते-पढ़ते आ रहे थे, बांस “झाड़” है। बोले तो श्रब हैं।
फिर मोदी जी आए और कहा, बांस को वही बनाओ, जो किताबो में पढ़ा-लिखा जा रहा है। बांस अपनी औकात पर आ गया। झाड़ था, झाड़ पेड़ से झाड़ बना दिया गया।
इससे क्या अंतर आया? बहुत अंतर आया। बांस की कटाई। बांस की ढुलाई। बांस की आवाजाही। बांस के प्रोडक्ट। बांस के प्रोडक्ट पर टैक्स। सब कुछ बदल गया। उन हजारों-लाखों परिवारों ने राहत की सांस ली, नीलू की तरह जो बांस पर निर्भर थे।
मुद्दा है, माओवादियों के लिए यह बड़ा मुद्दा है। उनके लिए भी बड़ा मुद्दा है, जो वनाश्रित है। लेकिन “कथित भद्र समाज” के लिए यह कोई मुद्दा ही नहीं। ना ही उन्हें जानकारी ही होगी। क्योंकि कभी धरती पर पांव रखा ही नहीं। ऊपर से उड़ गए हवाई जहाज में बैठकर।
ऐसे सैकड़ों कानून हैं, जो वनवासी, छोटे उद्यमी, व्यापारी, नवयुवकों को कुछ अपना करने से रोकते हैं। असल आतँकवादी, असल नक्सली, असल माओवादी तो वो हैं, जो इन कानून को बनवाने में, चलवाने के पक्षधर हैं। या फिर जमीनी हकीकत को सतह पर आने ही नहीं देते। आपराधिक चुप्पी धारण किए रहते हैं। फिर बोलेंगे, ईसाई मिशनरी नाश कर रही है।
रास्ता ही नहीं देते।
खैर। उस वक्त नीलू प्रतियोगी परीक्षा देना चाह रही थी। अपन ने अपील की थी, प्रतियोगी मटिरियल्स से नीलू का सहयोग करें। नीलू ने धन लेने से साफ मना कर दिया था। उसका आत्मसम्मान आड़े आ रहा था। कुछ मित्रों ने सहयोग भी किया।
इन्ही कुछ मित्रों की वजह से हिन्दू समाज के प्रति सकारात्मक सोच के साथ नीलू आज मध्य प्रदेश पुलिस में सब इंस्पेक्टर है।
वैसे भी यह पोस्ट वनपुत्री नीलू पर नहीं, सभ्य, शिक्षित समाज के बनाए “कानूनों के संजाल” पर है।
बात समझ ना आई हो तो कोई बात नहीं। आगे बढ़ लीजिए।
जंगल पर वनवासी के अधिकार की बात लिखते ही “कथित सभ्य और शिक्षित समाज” चिहुंक उठता है। मानों अधिकार ना हुआ, प्राकृतिक संसाधन पर वनवासियों का नियंत्रण ही हो गया। बोले तो कब्जा। इनके चिहुंकने पर मुझे हैरानी भी नहीं होती। क्योंकि बहुसंख्य हिन्दू बौद्धिक का कभी इन क्षेत्रों से साक्षात्कार भी नहीं हुआ। कमोबेश इनका चिहुंकना भी नक्सल आंदोलन को मजबूती ही दे रहा है।
चलिए! कुछ उदाहरण रखता हूँ। मौजूदा कानूनों और जारी व्यवस्था के झरोखें से…
सात-आठ साल पहले छत्तीसगढ़ “नाफेड” के मुख्य प्रबंधक मिले थे। किसी ने उनको बताया, नाफेड चेयरमैन के ओएसडी मेरे मित्र हैं। जो आईआरएस अधिकारी थे। आज भी हैं।
प्रस्ताव था, छत्तीसगढ़ के जंगलों से इकट्ठी की जाने वाली इमली की थोक खरीद की मंजूरी नाफेड मुख्यालय से मिल जाए। सप्लाई भाव बताया गया, प्रति किलो 13₹के भाव। बाजार में इमली का भाव करीब 200 से 300 ₹ किलो है। मजे की बात इस 13₹ में 5₹ “करप्शन मनी” भी शामिल था। जिसकी जिम्मेदारी छत्तीसगढ़ नाफेड की थी। अपन ने पूछा, तो वनवासितों से किस भाव पर खरीद होती है? यही कोई 4-5 ₹ में। उत्तर मिला।
यहां बौद्धिकों को याद दिला दूँ, इमली जंगल उत्पाद है, कोई पेड़ नहीं काटे जाते। और यदि इन्हें इकट्ठा नहीं किया गया तो गिर कर नष्ट हो जाएंगी। इन्हें इकट्ठा करने के लिए गहन जंगलों में घुसना पड़ता है।
अब जरा गौर कीजिए.4-5 ₹ से 200 ₹ का फासला कितने गुना हुआ ? सफ़ाई, प्रोसेस, पैकेजिंग, सब कुछ जोड़ लीजिए। आखिरी उपभोक्ता तक कितना होना चाहिए “उचित मूल्य” ? हालांकि शहरों में तमाम दुकानों के सामने “यहां उचित मूल्य पर हर सामान मिलता है!’ का बोर्ड लगा देखता हूँ। वाकई में उचित मूल्य? इसे ही उचित कहते हैं ?
खैर! अपन ने प्रबंधक महोदय से बोला, वनवासियों को 20₹ का भाव दिला दो, डील करा दूँ। अपन को कुछ मत देना। काहे की अपन तो “वामपंथी ब्राह्मण” हैं, जन्मना। डील उधर से कैंसल हो गई।
दूसरा उदाहरण अपने गुर्जर गौपालकों के जीवन से देता हूँ। वनवासी सहरियों का भी बताता हूँ।
हम वन क्षेत्र में रहते हैं। हजारों की संख्या में गायें जंगल में चरने जाती हैं। आरक्षित वन क्षेत्र में पशुचारण गैरकानूनी है। लेकिन कोई विकल्प ही नहीं हमारे पास। एवज में फारेस्ट रेंजर, गार्ड, प्रति माह, प्रति गाय 100₹ लेते हैं। एक गांव में यदि पांच हजार गाएं हैं तो जोड़ लीजिए महीने की उगाही का आंकड़ा ? क्या खूब कानून है।
अंग्रेजी पढ़े बौद्धिक कहते हैं, पशुचारण से जंगल खत्म हो जा रहे हैं। पर हम जानते हैं, पशुचारण से जंगल समृद्ध होते हैं। गायों के गोबर और मूत्र से धरती समृद्ध होती है। लेकिन इस विज्ञान को हिन्दू बौद्धिक भी खारिज करते हैं। अलवर के “सरिस्का टाइगर सेंच्युरी” के आसपास के गांवों की भी यही हालत है, इनकी बकरियां, बकरे, गायें कभी भी फारेस्ट गार्ड के हवाले हो सकती है। उगाही का अच्छा जरिया है। सरकारी बौद्धिकों का दावा है, बकरियों, गायों के खुर से पौधे कट जाते हैं। वाकई हास्यास्पद ज्ञान से तंत्र चल रहा है। धन्य हैं हमारे हिन्दू बौद्धिक भी।
एक मिसाल उत्तराखण्ड से। जंगली सुअर और बदर, पलायन के बड़े कारणों में एक है। लेकिन इनको “वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट” से संरक्षित कर दिया गया है। उखाड़ लीजिए, जो उखाड़ते बने। खेती करने लायक नहीं रहे पहाड़। एक मित्र की पोस्ट देख रहा था, उन्होंने लिखा..नील गायों को “वामपंथियों” ने “गाय” घोषित कर दिया, कोई कुछ नहीं कर सकता। इनसे यही निवेदन है, भाई! थोड़ा कानून भी पढ़ लिया करो। या केवल सूतियों की सोहबत करते हो ?
मोई जी भारत को पांच ट्रिलियन इकॉनमी करना चाहते हैं। अमेरिका का मेडिसनल प्लांट एक्सट्रेक्ट का ही कोई तीन ट्रिलियन का मार्किट है। लेकिन क्या कभी इस बिंदु पर चर्चा हुई ..केवल दण्डकारण्य से मेडिसनल प्लांट एक्सट्रेक्ट की कितनी संभावना है ? खनन और लकड़ी कटाई के मुकाबले ?
मेरे अनुमान से केवल दण्डकारण्य से ही एक ट्रिलियन डॉलर की कमाई हो सकती है। वो भी बिना जंगल का विनाश किए। बैगा, जो गोंड वनवासियों के वैद्य हैं, कर्मकांड कराने वाले ब्राह्मण ही हैं, जड़ी बूटीयों के गजब के जानकर हैं। यानी “काबिल वर्कफोर्स” परंपरा से तैयार हैं। “उचित लाभांश” देकर इस्तेमाल कीजिए। आपका मकसद डॉलर ही कमाना है ना ? तो कमाएं आगे बढ़कर। चिन्दी चोर की तरह जंगल का विनाश क्यों कर रहे हैं ?
कभी उकवा से गढ़चिरौली की यात्रा कीजिए। पैदल। समझ आएगा, नक्सल प्रभावित क्षेत्र में क्या गज्जब के वन समृद्ध हुए हैं। क्या खूब जंगली जानवर समृद्ध हुए हैं। क्योंकि सभ्य समाज “कानून के रथ” पर सवार होकर यहां अराजक नहीं हो पाया। अब मुझे जंगल से कुछ चाहिए नहीं, तो मुझे नक्सलियों से कोई दिक्कत भी नहीं। आपको चाहिए, तो आपको दिक्कत भी है।
यहां बौद्धिकों से एक प्रश्न है, यह जो आप “अर्जुन छाल” का पाउडर इस्तेमाल करते हैं ? कैसे आप तक पहुंच रहा है ? छाल उतारने पर तो “कानूनी प्रतिबन्ध” है। तो कैसे ये बड़ी कंपनियां उत्पाद ला रही है ? खुद बागान लगा रखे हैं का ? कहाँ हैं इनके बाग? साथ चलकर चलकर दर्शन किया जाए जरा।
मूल प्रश्न है, हम किसी भी समाज के न्यूनतम अधिकार को कैसे परिभाषित करते हैं ? जीवन जीने के अधिकार को कैसे देखते हैं ? हमारी समझ का दायरा कितना बड़ा है ? कितना व्यापक है ?
……और आखिर में सनातन के “सहअस्तित्व” के सिद्धान्त/दर्शन की हमारी समझ कितनी है ? हम वाकई में हिन्दू हैं ?
वैसे मुझे लगता नहीं, नक्सल-माओवाद पर लिखने वाले तमाम मित्रों ने नक्सल या माओवादी इलाकों का कभी साक्षात्कार भी किया होगा ? किताब से किताबों की दुनिया का किस्सा चल रहा है। आज समय युवाओं का है, जो पुरानी किताबें खारिज कर नई किताबें लिखें। हमारा समय खत्म।
सुमन्त भट्टाचार्य