कैबिनेट विस्तार को लेकर आंख-मिचौली का खेल जारी

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सुनील अग्रवाल 

बिहार में नीतीश कैबिनेट विस्तार को लेकर  आंख-मिचौली का खेल बदस्तूर जारी है। आखिर मंत्रिमंडल का विस्तार कब तक होगा, कोई माकूल जवाब दे पाने की स्थिति में नहीं है। सत्ता पक्ष की ओर से महज इतना भर कहा जा रहा है कि जल्द हीं हो जाएगा। संभावित नामों के बीच सिर्फ लोलीपॉप बांटा जा रहा है।

हालांकि मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर पटना से दिल्ली दरबार तक कई दौर की वार्ता संपन्न हो चुकी है, बावजूद ऊहापोह की स्थिति बरकरार है। मंत्रिमंडल में हो रहे विलंब को लेकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी नाराज़गी भी जाहिर कर चुके हैं। मुख्यमंत्री ने तो यहां तक कह दिया कि पहले कभी ऐसा हुआ है क्या। जाहिर तौर पर मुख्यमंत्री विलंब का ठीकरा सहयोगी दल भाजपा पर फोड़ना चाहते हैं। दुखद तो यह है कि इस मुद्दे पर सरकार अब तक यही रोना रोते आ रही है कि अब होगा,तब होगा, जल्द होगा, मगर तय तिथि बता पाने की स्थिति में न तो भाजपा है और न ही जदयू। इस सवाल पर भाजपा नेताओं का मानना है कि सब कुछ फाइनल है, बावजूद विस्तार के घड़ी की सुई कहां अटकी हुई है,समझ से परे है।

गौरतलब है कि कैबिनेट विस्तार के मुद्दे पर मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री द्वय के अलावे कोई अन्य नेता अपना मुंह खोलने को तैयार नहीं। पहले यह कहा जाता रहा कि खरमास के बाद मंत्रिमंडल विस्तार की प्रवल संभावना है, बावजूद अब तक विस्तार की बात तो दूर कोई सुगबुगाहट तक सुनाई नहीं देती। कयास तो यही लगाया जा रहा है कि दाल में जरूर कुछ काला है।

फिलवक्त बिहार में ऐसे कई मंत्री हैं जिनके जिम्में 5-6 विभागों का दायित्व है। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी हो जाता है कि आखिर किन कारणों से मंत्रिमंडल का विस्तार नहीं हो पा रहा है। मुख्यमंत्री का स्पष्ट तौर पर मानना है कि विलंब के लिए भाजपा नेतृत्व जिम्मेदार है। कारण जब तक सरकार में शामिल बड़े सहयोगी दल भाजपा की ओर से इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की जाती है,तब तक मंत्रिमंडल विस्तार कर पाना संभव नहीं है।

राजनैतिक पंडितों की मानें तो पेंच 50-50 के फार्मूले पर अटका हुआ है। साथ ही मंत्रालय को लेकर भी खींचतान बरकरार है। सबसे बड़ा कारण गृह मंत्रालय को लेकर है। भाजपा की चाहत है कि गृह मंत्रालय उसे मिले। मगर मुख्यमंत्री इस मंत्रालय को छोड़ने को कतई तैयार नहीं दिखते। यही कारण है कि विधि व्यवस्था के बिगड़ते हालात पर भाजपा सरकार में रहते हुए भी हमलावर नजर आती रही है और इस मुद्दे पर अपना पल्ला झाड़ लेती हैं।

वहीं दूसरी ओर हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा के सुप्रीमो जीतन राम मांझी मंत्रिमंडल विस्तार में अपने दामाद के लिए भी सीट सुरक्षित चाहते हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि जब भाजपा और जदयू में ही इस मसले पर मामला नहीं सुलझा है तो मांझी की मन्नत को कहां तक तव्वजो दी जा सकती है।

सनद रहे कि नीतीश सरकार मामूली बढ़त के आधार पर चल रही है। ऐसे में अगर जीतन राम मांझी की महत्वाकांक्षा को पूरा कर भी दिया गया तो फिर वीआईपी पार्टी के मुकेश साहनी का क्या होगा। क्या यह संभव है कि मांझी की हीं तरह वो भी अपनी हसरतें पूरी करवाने पर आमादा नहीं हो जाएंगे।

ऐसे में देखा जाएं तो मुख्यमंत्री के समक्ष चुनौतियों का अम्बार लगा हुआ है। देखना यह है कि वो अपने तरकस के किन बाणों से इन चुनौतियों को भेद पाते हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए यह कहना गलत नहीं होगा कि इस बार उन्हें सत्ता के तौर पर फुलों का सेज नहीं बल्कि कांटों भरा ताज मिला है।

 (बिहार से सुनील अग्रवाल )

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