नाम गुम जाएगा, हीरा ये न मिल पाएगा

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अंशु सारडा’अन्वि।
   इस सप्ताह राष्ट्रपति भवन में आयोजित एक विशिष्ट समारोह में माननीय राष्ट्रपति महोदय ने 119 विशिष्ट व्यक्तियों को पद्म पुरस्कारों से सम्मानित किया। सन् 1954 से  प्रतिवर्ष दिए जाने वाले इन पुरस्कारों की घोषणा गणतंत्र दिवस के मौके पर की जाती है। इस पुरस्कार के लिए योग्य व्यक्तियों के चयन हेतु सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारों, सरकारी मंत्रालयों व उत्कृष्ट संस्थानों से सिफारिशें आमंत्रित की जाती हैं। पूरे भारतवर्ष में विभिन्न क्षेत्रों में अपनी असाधारण उपलब्धियों के लिए दिए जाने वाले इन पुरस्कारों के चयन पर कभी-कभी विवादों की उंगली भी उठती रही है।
      जानकारी के लिए बताती चलूं कि यह पद्म पुरस्कार मात्र एक विशिष्ट सम्मान होता है,  जिसमें किसी भी तरह की कोई पुरस्कार राशि, कोई रियायत या कोई सुविधा लाभ आदि प्राप्तकर्ता को नहीं मिलते हैं। मिलता है तो उनकी अप्रतिम उपलब्धियों के लिए एक सम्मान। कितने चेहरे ऐसे होते हैं जिनके नाम और काम को हम पहले से जानते जानते होते हैं पर अधिकांश ऐसे चेहरे होते हैं जिनके नाम और काम को इन पुरस्कारों की घोषणा के बाद ही हम जान पाते हैं। तब हम उन व्यक्तियों को ढूंढते हैं कि आखिर यह हमारे ही प्रदेश से है पर हमारे ही प्रदेश में इनको कोई क्यों नहीं जानता है। इस प्रकार यह एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा जमीन से जुड़े, जमीनी तबके के उत्थान और समग्र विकास के लिए कार्यरत व्यक्तियों के अतुलनीय कार्यों को सबके सामने लाया जाता है। सोशल मीडिया द्वारा हम इन सब के बारे में और इनके समाज के प्रति विशिष्ट योगदान के बारे में तुरंत जान लेते हैं और ऐसी पोस्ट को लाइक्स के द्वारा पसंद भी करते हैं। हम देखते हैं ऐसे काम करने वालों की राह कितनी मुश्किल रही होती है। उन्हें उनके काम के लिए किसी पुरस्कार या नाम की चाहत से अधिक उनके काम को मान्यता मिलने और उनके लिए आर्थिक मदद की आवश्यकता होती है। हालांकि वे अब तक जो भी काम कर रहे होते हैं, वह भी बिना किसी भी प्रकार की बड़ी मदद के ही खुद के दम पर ही कर रहे होते हैं। पर ज्यादातर नामों और कामों को किताबों और अखबारों में जगह मिलने और कुछेक सम्मान आदि मिलने के अलावा किसी भी अन्य प्रकार की आर्थिक मदद नहीं मिलती है। यह आर्थिक मदद न तो कोई सरकारी संस्था देती है और न ही कोई स्वयंसेवी संस्था तथा  न ही इनको बड़ी प्राइवेट कंपनियों के द्वारा किसी प्रकार की मदद मिलती है। वे कंपनियां जिनको अनिवार्यतः उन गतिविधियों में हिस्सा लेना आवश्यक होता है, जो कि समाज के पिछड़े वर्ग या वंचित समाज के कल्याण के लिए जरूरी हैं, इनमें राष्ट्रीय विरासत का संरक्षण, भूख, गरीबी, कुपोषण जैसी समस्याएं, मां एवं शिशु स्वास्थ्य, शिक्षा को बढ़ावा, स्लम क्षेत्रों के विकास में योगदान करना आदि शामिल हैं। क्या इन कंपनियों और सरकारी संस्थानों की नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी ऐसे लोगों और उनके कार्यों के प्रति नहीं बनती कि वे बढ़कर इनके लिए सहायता के हाथ आगे बढ़ाएं।
       दरअसल अधिकांश मामलों में देखा जाता है कि सम्मान प्राप्त करने के बाद प्राप्तकर्ता इन्हें अपने स्थान पर सुरक्षित रख देता है और फिर  से अपनी दुनिया में एक नई जद्दोजहद के साथ शुरू हो जाता है। पता नहीं किस मिट्टी के बने होते हैं ये लोग जो कि काम और नाम होने से भी नहीं रुकते हैं बल्कि उसे अपने अधिक बड़ी सामाजिक जिम्मेदारी समझकर और अधिक उसको ओढ़ लेते हैं। इस वर्ष भी अनेकों ऐसे नाम हैं इस सूची में जो कि बिना किसी के सहयोग के इंतजार के अनवरत एक आदर्श व्यक्ति की भांति अपने कामों में लगे हैं। इनमें पहाड़ काटकर सड़क बनाने वाले लद्दाख के दशरथ मांझी कहे जाने वाले 70 वर्षीय लामा त्सुलटिम छोंजोर हैं, जिन्होंने अपना घर और खेत बेचकर पहाड़ काटने की मशीन खरीद कर पहाड़ के बीच रास्ता निकाल सड़क बना दी। झारखंड की छुटनी देवी, जिन्होंने डायन प्रथा का सामना किया। जिसके लिए उन्हें घर से, गांव से निकाल दिया गया, पेड़ से बांधकर पिटाई की गई पर  उन्होंने अपनी हिम्मत के दम पर अपने जैसी 70 महिलाओं का समूह बनाकर, आज तक समाज की 500 महिलाओं को इस कुप्रथा से बचाया है। मात्र सातवीं कक्षा तक पढ़े ,70 साल से निःशुल्क बच्चों को पढ़ा रहे नंदकिशोर कांतरा गांव से हैं और  शिक्षा का उजियारा फैला रहे हैं। राहीबाई सीमा पापेरे महाराष्ट्र के आदिवासी समाज से हैं, जिन्हें बीज माता कहा जाता है। अपने प्रयासों से 70 से ज्यादा फसल उगाती हैं। ऐसे कई नाम हैं इस सूची में। पर क्या इन जीवन से जुड़े हुए असली नायक- नायिकाओं को कोई कंपनी, कोई ब्रांड अपने विज्ञापन में लेगा? क्या कोई इनके आदर्श कार्यों के प्रति अपनी निष्ठा दिखाएगा? क्या इन्हें इनके श्रम का, इनकी विशिष्ट सेवा का, उपलब्धियों का कोई और लाभ भी मिलेगा?
        असल में व्यापारीकरण और बाजारवाद के इस दौर में जिसको अपनी पहुंच और अपने नाम को भुनाना आ गया, उसका काम बन गया अन्यथा शेष दुनिया के लिए आदर्श बने ये चेहरे अपने काम में अपने नाम सहित गुम हो जाएंगे। हम ऐसे विशिष्ट व्यक्तियों को उठाना और दिखाना तो जान गए हैं पर इन्हें संभालना और उनकी रचनात्मकता का उपयोग करना अभी भी नहीं सीखे हैं। यही कारण है कि कोई डॉक्यूमेंट्री निर्माण आदि के द्वारा इनका नाम कुछ और लोगों तक पहुंच जाता है पर हमारी अधिकांश जनता- जनार्दन ऐसे नामों से, उनके कामों से अपरिचित ही रहती है। 2 जून की रोटी की इस भाग दौड़ में हम ऐसे ही हीरे और हीरोज की चमक से चमत्कृत तो होते हैं पर इन्हें सहेजना नहीं जानते हैं। आवश्यकता है इन रियल लाइफ हीरोज को संभालने की, उनसे सीखने की, उनके कामों में उनका साथ देने की, जिन्होंने दूरदराज के क्षेत्रों से होकर भी, विषम परिस्थितियों में भी अपने काम के प्रति अपने उत्साह और लगन को कभी भी पीछे नहीं होने दिया, कभी कम नहीं होने दिया। ऐसे योद्धाओं को हमारा सलाम, जो पथरीले रास्तों और धरती पर मेहनत करके सच्चे हीरों के रूप में निकले हैं।
              अंशु सारडा’अन्वि
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